देवी सरस्वती





भगवती सरस्वती / Sarasvati / Saraswati Devi


भगवती सरस्वती



Saraswati Devi



सरस्वती का जन्म ब्रह्मा के मुँह से हुआ था। वह वाणी की अधिष्ठात्री देवी है। ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वती पर ही आसक्त हो गये। वे उसके पास गमन के लिए तत्पर हुए। सभी प्रजापतियों ने अपने पिता ब्रह्मा को न केवल समझाया, अपितु उनके विचार की हीनता की ओर भी संकेत किया। ब्रह्मा ने लज्जावश वह शरीर त्याग दिया, जो कुहरा अथवा अंधकार के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया।

ब्रह्मा द्वारा शाप

वेदज्ञ पुरूरवा ने ब्रह्मा के निकट हास करती हुई सरस्वती को देखा। उर्वशी के द्वारा उसने सरस्वती को अपने पास बुलाया। तदनंतर दोनों परस्पर मिलते रहे। सरस्वती ने ‘सरस्वान्’ नामक पुत्र को जन्म दिया। कालांतर में ब्रह्मा को पता चला तो उन्होंने सरस्वती को महानदी होने का शाप दिया। भयभीता सरस्वती गंगा माँ की शरण में जा पहुँची। गंगा के कहने पर ब्रह्मा ने सरस्वती को शाप-मुक्त कर दिया। शापवश ही वह मृत्युलोक में कहीं दृश्य और कहीं अदृश्य रूप में रहने लगी।

सोम तथा सरस्वती की कथा

सोम की प्राप्ति पहले गंधर्वों को हुई। देवताओं ने जाना तो सोम प्राप्त करने के उपाय सोचने लगे। सरस्वती ने कहा—“गंधर्व स्त्री-प्रेमी हैं, उनसे मेरे विनिमय में सोम ले लो। मैं फिर चतुराई से तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’ देवगिरि पर यज्ञ करके देवताओं ने वैसा ही किया। गंधर्वों के पास न तो सोम ही रहा, न सरस्वती।[2]

सरस्वती पूजन

श्री कृष्ण ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम सरस्वती की पूजा का प्रसार किया। सरस्वती ने राधा के जिव्ह्याग्र भाग से आविर्भूत होकर कामवश श्री कृष्ण को पति बनाना चाहा। कृष्ण ने सरस्वती से कहा—“मेरे अंश से उत्पन्न चतुर्भुज नारायण मेरे ही समान हैं’’-- वे नारी के ह्रदय की विलक्षण वासना से परिचित हैं, अत: तुम उनके पास वैकुंठ में जाओ। मैं सर्वशक्ति सम्पन्न होते हुए भी राधा के बिना कुछ नहीं हूँ। राधा के साथ-साथ तुम्हें रखना मेरे लिए संभव नहीं। नारायण लक्ष्मी के साथ तुम्हें भी रख पायेंगे। लक्ष्मी और तुम समान सुंदर तथा ईर्ष्या के भाव से मुक्त हो। माघ मास की शुक्ल पंचमी पर तुम्हारा पूजन चिरंतन काल तक होता रहेगा तथा वह विद्यारम्भ का दिवस माना जायेगा। वाल्मीकि, बृहस्पति, भृगु इत्यादि को क्रमश: नारायण, मरीचि तथा ब्रह्मा आदि ने सरस्वती-पूजन का बीजमन्त्र दिया था।

सरस्वती द्वारा दिया गया शाप

लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा नारायण के निकट निवास करती थीं। एक बार गंगा ने नारायण के प्रति अनेक कटाक्ष किये। नारायण तो बाहर चले गये किन्तु इससे सरस्वती रुष्ट हो गयी। सरस्वती को लगता था कि नारायण गंगा और लक्ष्मी से अधिक प्रेम करते हैं। लक्ष्मी ने दोनों का बीच-बचाव करने का प्रयत्न किया। सरस्वती ने लक्ष्मी को निर्विकार जड़वत् मौन देखा तो जड़ वृक्ष अथवा सरिता होने का शाप दिया। सरस्वती को गंगा की निर्लज्जता तथा लक्ष्मी के मौन रहने पर क्रोध था। उसने गंगा को पापी जगत का पाप समेटने वाली नदी बनने का शाप दिया। गंगा ने भी सरस्वती को मृत्युलोक में नदी बनकर जनसमुदाय का पाप प्राक्षालन करने का शाप दिया। तभी नारायण भी वापस आ पहुँचे। उन्होंने सरस्वती का आर्लिगन कर उसे शांत किया तथा कहा—“एक पुरुष अनेक नारियों के साथ निर्वाह नहीं कर सकता। परस्पर शाप के कारण तीनों को अंश रूप में वृक्ष अथवा सरिता बनकर मृत्युलोक में प्रकट होना पड़ेगा। लक्ष्मी! तुम एक अंश से पृथ्वी पर धर्म-ध्वज राजा के घर अयोनिसंभवा कन्या का रूप धारण करोगी, भाग्य-दोष से तुम्हें वृक्षत्व की प्राप्ति होगी। मेरे अंश से जन्मे असुरेंद्र शंखचूड़ से तुम्हारा पाणिग्रहण होगा। भारत में तुम ‘तुलसी’ नामक पौधे तथा पदमावती नामक नदी के रूप में अवतरित होगी। किन्तु पुन: यहाँ आकर मेरी ही पत्नी रहोगी। गंगा, तुम सरस्वती के शाप से भारतवासियों का पाप नाश करने वाली नदी का रूप धारण करके अंश रूप से अवतरित होगी। तुम्हारे अवतरण के मूल में भागीरथ की तपस्या होगी, अत: तुम भागीरथी कहलाओगी। मेरे अंश से उत्पन्न राजा शांतनु तुम्हारे पति होंगे। अब तुम पूर्ण रूप से शिव के समीप जाओ। तुम उन्हीं की पत्नी होगी। सरस्वती, तुम भी पापनाशिनी सरिता के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी। तुम्हारा पूर्ण रूप ब्रह्मा की पत्नी के रूप में रहेगा। तुम उन्हीं के पास जाओ।’’ उन तीनों ने अपने कृत्य पर क्षोभ प्रकट करते हुए शाप की अवधि जाननी चाही। कृष्ण ने कहा—“कलि के दस हज़ार वर्ष बीतने के उपरान्त ही तुम सब शाप-मुक्त हो सकोगी।’’ सरस्वती ब्रह्मा की प्रिया होने के कारण ब्राह्मी नाम से विख्यात हुई।[3]

मत्स्य पुराण के अनुसार

ब्रह्मा ने लोक-रचना करने क्र निमित्त सावित्री का ध्यान कर तपस्या आरंभ की। ब्रह्मा का शरीर दो भागों में विभक्त हो गया—

आधा पुरुष-रूप (मनु) तथा, आधा स्त्री-रूप (शतरूपा सरस्वती)।

कालांतर में ब्रह्मा अपनी देहजा सरस्वती पर आसक्त हो गये। देवताओं के मना करने पर भी उनकी आसक्ति समाप्त नहीं हुई। सरस्वती ‘पिता’ को प्रमाण करके उनकी प्रदक्षिणा कर रही थी। ब्रह्मा के मुख के दाहिनी ओर दूसरा लज्जा से पीतवर्ण वाला मुख प्रादुर्भूत हुआ, फिर पीछे की ओर तीसरा और बायीं ओर चौथा मुख आविर्भूत हुआ। सरस्वती स्वर्ग की ओर जाने के लिए उद्यत हुई तो ब्रह्मा के सिर पर पांचवां मुख भी उत्पन्न हुआ जो कि जटाओं से ढका रहता है। ब्रह्मा ने मनु को सृष्टि-रचना के लिए पृथ्वी पर भेजकर शतरूपा (सरस्वती) से पाणि-ग्रहण किया, फिर समुद्र में विहार करते रहे। ब्रह्मा को इस कुकृत्य का दोष नहीं लगा, क्योंकि सरस्वती उनका अपना अंग थी। वेदों में ब्रह्मा और सरस्वती का अमूर्त निवास रहता है। दोनों की सर्वत्र अमूर्त उपस्थिति की अनिवार्यता पर ध्यान देकर तथा यह देखकर कि वह ब्रह्मा का अनिवार्य अंग है, ब्रह्मा को दोषी नहीं ठहराया गया।[4]

श्वेत पद्म पर आसीना, शुभ्र हंसवाहिनी, तुषार धवल कान्ति, शुभ्रवसना, स्फटिक माला धारिणी, वीणा मण्डित करा, श्रुति हस्ता वे भगवती भारती प्रसन्न हों, जिनकी कृपा मनुष्य में कला, विद्या, ज्ञान तथा प्रतिभा का प्रकाश करती है। वही समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री हैं। यश उन्हीं की धवल अंग ज्योत्स्ना है। वे सत्त्वरूपा, श्रुतिरूपा, आनन्दरूपा हैं। विश्व में सुख, सौन्दर्य का वही सृजन करती हैं।
वे अनादि शक्ति भगवान ब्रह्मा के कार्य की सहयोगिनी हैं। उन्हीं की कृपा से प्राणी कार्य के लिये ज्ञान प्राप्त करता है। उनका कलात्मक स्पर्श कुरुप को परम सुन्दर कर देता है। वे हंसवाहिनी हैं। सदसद्विवेक ही उनका वास्तविक प्रसाद है। भारत में उनकी उपासना सदा होती आयी है। महाकवि कालिदास ने उन्हें प्रसन्न किया था। प्रत्येक कवि उनके पावन पदों का स्मरण करके ही अपना काव्यकर्म प्रारम्भ करता था, यह यहाँ की सनातन परम्परा थी।

प्रतिभा की उन अधिष्ठात्री के चरित तो सर्वत्र प्रत्यक्ष हैं। समस्त वाड्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा विज्ञान उन्हीं का वरदान है। मनुष्य उन जगन्माता की अहैतु की दया से प्राप्त शक्ति का दुरूपयोग करके अपना नाश कर लेता है और उनको भी दुखी करता है। ज्ञान-प्रतिमा भगवती सरस्वती के वरदान का सदुपयोग है अपने ज्ञान, प्रतिभा और विचार को भगवान में लगा देना। वह वरदान सफल हो जाता है। मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। भगवती प्रसन्न होती हैं।

'भारतीय प्राचीन कला प्राय: मन्दिरों में व्यक्त हुई है।' पाश्चात्य विद्वानों के ये आक्षेप ठीक ही हैं। भारत ने नश्वर मनुष्य और उसके नश्वर अर्थहीन कृत्यों को व्यर्थ स्थायी करने का प्रयत्न नहीं किया। भारत पर भगवती भारती की सदा समुज्ज्वल कृपा रही। मानव-अमृतपुत्र मानव को उन्होंने नित्य अमरत्व का मार्ग दिखाया। मानव ने अपनी क्रिया का आधार उस नित्यतत्त्व को बनाया, जहाँ क्रिया नष्ट होकर भी शाश्वत हो जाती है। कला उस चिरन्तन ज्योतिर्मय से एक होकर धन्य हो गयी। वह स्थूल जगत में भले नित्य न हो, अपने उद्गम को नित्य जगत में पहुँचाने में सफल हुई।

भगवती सरस्वती के दिव्य रूप को न समझकर उनके मंजु प्रकाश के क्षुद्रांश में भ्रान्त मनुष्य उस प्रकाश का दुरूपयोग करने लगा है। अन्धकार के गर्त में गिरता तो कदाचित कहीं अटकता भी; पर वह तो प्रकाश में कूद रहा है नीचे घोर अतल अन्धकार में।

भगवती शारदा के मन्दिर हैं, उपासना-पद्धति है, उनकी उपासना से सिद्ध महाकवि एवं विद्वानों के इतिहास में चारू चरित हैं। यह सब होकर भी उनकी कृपा और उपासना का फल केवल यश नहीं। यश तो उनकी कृपा का उच्छिष्ट है। फल तो है परमतत्त्व को प्राप्त कर लेना। इसी फल के लिये श्रुतियाँ उन वाग्देवी की स्तुति करती हैं।